गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

दो हजार पंद्रह

जाते साल के टुकड़े
पड़े हैं तितर बितर
कुछ पड़े तकिये पे मुँह बिसूरते
कुछ बच्चों की किलकारियों में सुर मिलाते
कुछ रसोई में हिसाब मिलाते
कुछ मेहमानों की खातिर में बिछ बिछ जाते
कुछ हँसते मुस्काते
लड़ियाते झूल झूल जाते
समेट लूँ इन सभी को
तब जा के तो विदा करूँ
दो हजार पंद्रह को

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

ई-संसद

हाँ तो भई फिर से संसद सत्र चल रहा और फिर से ठप भी हो रहा। हर किसी को फिकर कि कित्ता नुकसान हो रहा देश के काम-काज का । तो अपन ने सोचा कि अपन भी थोड़ी सी फिकर कर लें कि कित्ता नुकसान हो रहा भई।  बताओ जब काम करना ही नहीं तो सत्र बुलाते ही क्यूँ हो ? और अगर बुला भी लिया तो चीख- चीख के सबके गले क्यूँ ख़राब करवाते हो ? पता है घर जाते ही गरारे करने पड़ते हैं जिस से कि अगले दिन दूना चीख सकें । कुछ सांसद तो संसद कैंटीन का सदुपयोग भी करते हैं, गरारे वास्ते। खैर छोड़ो, अपन को क्या करना । अपन तो फिकर कर रहे।
       हाँ तो हम कह रहे थे कि सत्र क्यूँ बुलाना। टेक्नोलॉजी का ज़माना है। वीडियो- कॉन्फ़्रेंसिंग करा लो। वैसे भी मोदी जी जैसे रेडियो पे मन की बात करते वैसे ही टीवी पे भी कर लेंगे। सब सांसद अपने घर से ही भाग लें। किराया तो बचेगा कम से कम।
     ना ना , जे न समझना कि काम करवा लोगे। सांसदों के ट्रैक-रिकॉर्ड पे धब्बा न लगने देंगे। हाँ तो बिल कोई भी हो, वोटिंग पैटर्न में यस का एक और नो के 4 आप्शन होंगे जैसे कि सिंपल नो, 50 डेसिबल के शोर वाली नो, 100 डेसिबल के शोर वाली नो और लास्ट वाली नो में यस वालों के माइक, टीवी और सभी फर्नीचर रोहित शेट्टी की फिल्मो की गाड़ियों से उड़ेंगे। क्या हाई-टेक डॉल्बी साउंड की संसद होगी अपनी।
       सब मसले हल। बस एक अपवाद होगा। सांसदों के वेतन और भत्ते बढ़ाने वाले बिल पे सिर्फ यस का बटन ही काम करेगा, सिंपल नो वाला भी नही। आखिर कभी तो एकमत होना पड़ता है न , देशहित में। बस ऐसे ही पेपरलैस गवर्नमेंट चलेगी पर पेपरवेट से। फिर सब कहेंगे ई संसद तो ई-संसद हुई गयी रे।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

दरख़्त

सुनो, बन चुकी हूँ मैं वो दरख़्त,
जिसके नीचे हम मिला करते थे ,
औ जहाँ छोड़ तुम मुझे चल दिए थे,
हो के सवार अपनी फटफटिया पे।
मैं पीछे और पीछे छूटती जा रही थी,
और तुमने न देखा पलट के कभी,
तो अब क्यों देते हो इल्जाम कि ,
मैं गयी तुम्हे भूल
जबकि मैं तो वहीँ हूँ , आज भी ,
बन के दरख़्त वही।

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

असहिष्णुता और आमिर

सोशल मीडिया पर बिना अपशब्दों के तर्कपूर्ण तरीके से विरोध करने का हुनर बहुत rare दीखता है। ताजा नमूना आमिर खान का है। मुद्दे की जड़ तक जा कर प्रतिप्रश्न किया किसी ने कि क्या आप स्वयं अपनी पत्नी से सहमत हैं? वही दूध का दूध और पानी का पानी हो गया होता।
        रही बात असहिष्णुता की तो आमिर और किरण जिस क्षेत्र में काम करते हैं, वो समूचे भारत का प्रतिनिधत्व  भाषा, बोली, क्षेत्र, आयवर्ग से लेकर धर्म तक में करता है। क्या उन्होंने पिछले कुछ महीनो में कोई बदलाव देखे फ़िल्म उद्योग में जिनमे उन्हें किसी भी वजह से भेदभाव का सामना करना पड़ा हो। नहीं? ... तो भैया ये असहिष्णुता का राग न अलापो। तो जैसे आपकी जिंदगी पहले जैसी है वैसी ही देश के गाँव कूचों और शहरों में लोगों की जिंदगी चल रही है। आज भी सड़क पर निकल कर धर्म नही पूछते पहले किसी की मदद करने के। हुई हैं कुछ घटनाएं, लेकिन उनकी वजह से सारे देश पर ऊँगली उठाना कहाँ तक सही है। जहाँ घटनाएं हुई उनका विरोध भी भरपूर हुआ।
      ये असहिष्णुता है सिर्फ सोशल मीडिया पर, जहाँ हर छोटे से छोटे आदमी के पास हथियार आ गया है अपनी बात रखने का फिर चाहे सामने कोई भी क्यों न हो। और इस बात रखने के अति उत्साह में वो शिष्टता भूल जाता है। तो भई आमिर टोको उसे पर ये पलायन क्यूँ ? जितना प्यार आपने पाया है स्टारडम  में वो लौटाने का वक़्त है यहीं, इसी सोशल मीडिया पर । फिर देखो ये तुम्हे सर आँखों पर कैसे नहीं बिठाते फिर ।
    

बोंसाई सी लड़की

कभी देखें हैं बोन्साई  खूबसूरत, बहुत ही खूबसूरत लड़कियों से नही लगते? छोटे गमलों में सजे  जहां जड़ें हाथ-पैर फैला भी न सकें पड़ी रहें कुंडलियों...