शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

आज कुछ नही करने का मन है,
एकांत में, शून्य में नजरें गड़ाये बैठे रहने का मन है,
साफ़ सफ़ेद दीवार पर ,
एक सुई से भी छोटी नोक के बिंदु पर, नजरें टिकाये, उसे बड़ा करते जाने का मन है,
कोई न टोके, न बोले कुछ, ऐसे ही बंद कमरे में,
जिसे न खटखटाये कोई, बैठे रहना अँधेरा किये,
उसी अँधेरे से आँखें मिलाने का मन है,
देर तक कोई आवाज न आये, आये भी तो बस
पंखे की घरघराहट... जैसे और कोई आवाज कभी रही ही न हो दुनिया में, ऐसे बहरे बन जाने का मन है,
ऐसा नही कि बोल नही उमड़ते, उमड़ते हैं लेकिन
उन्हें जुबान पे न लाने का मन है,
यूँ ही चुपचाप बैठे रहने का मन है,
कोई बहुत बड़ी ख्वाहिश नही यह, लेकिन
पूछिए ज़रा खुद से,
कब आखिरी बार मिला था ऐसा सुयोग ?
मिलेगा, उम्मीद तो है,
जीते-जी ये सुयोग पाने का मन है .....

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

रेत सी बन जियूं तो क्या अच्छा हो,
हर सुख, हर दुःख
लहरों सा धो के निकल जाए
कभी आप्लावन से भर उठूँ
दरक जाऊं प्रवाह में,
उतरने के बाद फिर नई,
अनछुई सी, स्वागत को तैयार रहूँ
अनजानी सी लहर के,
या किसी के पैरों के निशान सहेजूँ,
औ किसी बच्चे के सपनों को
घरौंदे में बदलने को आतुर रहूँ
हर आगत पल की
अनिश्चितता, रोंगटे खड़े करे मेरे
जीवन के हर पल में रोमांच
नया सा, कैसा तो होता होगा ना ?

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

लफ्ज़, अंगारों से
दहकते, धधकते,
जलाते क़दमों को
लेकिन, क्लांत हो जलन से
बैठना न हो संभव
तो मौन का शीतल मलहम,
लगा तलवों पर
गुजरते जाना
जब तक कि
अंगारे राख न हों
और राख ठंडी हो
क़दमों को सुकून न दे।

बोंसाई सी लड़की

कभी देखें हैं बोन्साई  खूबसूरत, बहुत ही खूबसूरत लड़कियों से नही लगते? छोटे गमलों में सजे  जहां जड़ें हाथ-पैर फैला भी न सकें पड़ी रहें कुंडलियों...