शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

आज कुछ नही करने का मन है,
एकांत में, शून्य में नजरें गड़ाये बैठे रहने का मन है,
साफ़ सफ़ेद दीवार पर ,
एक सुई से भी छोटी नोक के बिंदु पर, नजरें टिकाये, उसे बड़ा करते जाने का मन है,
कोई न टोके, न बोले कुछ, ऐसे ही बंद कमरे में,
जिसे न खटखटाये कोई, बैठे रहना अँधेरा किये,
उसी अँधेरे से आँखें मिलाने का मन है,
देर तक कोई आवाज न आये, आये भी तो बस
पंखे की घरघराहट... जैसे और कोई आवाज कभी रही ही न हो दुनिया में, ऐसे बहरे बन जाने का मन है,
ऐसा नही कि बोल नही उमड़ते, उमड़ते हैं लेकिन
उन्हें जुबान पे न लाने का मन है,
यूँ ही चुपचाप बैठे रहने का मन है,
कोई बहुत बड़ी ख्वाहिश नही यह, लेकिन
पूछिए ज़रा खुद से,
कब आखिरी बार मिला था ऐसा सुयोग ?
मिलेगा, उम्मीद तो है,
जीते-जी ये सुयोग पाने का मन है .....

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